रोटी का एक टुकड़ा

🙏🙏रोटी का एक टुकड़ा🙏🙏


वह लगभग नंगे बदन माँ को देख देख रो रही थी। 
पास में ही पसीने से भीगी माँ रेती ढोरही थी। 
माँ जैसे जैसे सीढियाँ चढ़ रही थी। 
मासूम की आवाज और बढ़ रही थी। 
शायद भूख लगी थी या ममता की थी खोज। 
हालाँकि ए तो वे क्रम थे जो होते थे रोज। 
वैसे तो हम उन्नति के शिखर चूम रहे हैं। 
एक तिहाई   लोग रोटी की खोज में घूम रहे हैं। 
 नन्हीं सी जान  इन बातों से अंजान। 
उसकी तो माँ ही है सारा जहान । 
माँ को भी रोटी की तलाश थी। 
दैनिक मजदूरी ही एक आस थी। 
नए संसद और सेंगोल से उसे का लेना। 
उसकी तो चाहत है दो जून का चबेना। 
कोई कह रहा बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ। 
कोई कह रहा दो हजारी भजाओ, बैंक आओ। 
कोई उभरते भारत की बात कर रहा। 
कोई आज भी भूख से बेमौत मर रहा। 
न जाने क्यों बढ़ रही अमीर गरीब का अंतर। 
कुछ लोग तो कह रहे गरीबी हो  गई छू मंतर। 
फिर उस बच्ची का रुदन बढ़ता देख। 
उभर आई माँ के मस्तक पर ममता की रेख। 
झट से नीचे आई नवजात को आँचल में छुपाई। 
तब तक ठीकेदार ने देख दो चार गाली सुनाई। 
फिर ममता अकुलायी, पर काम पर भागी। 
लेकिन मानव की मानवता न जागी। 
मैं सोच रहा हूँ क्या यही आधुनिक भारत है। 
जहाँ करोड़ों के खर्च सही, जनता नदारद है। 
आम जनता से शायद किसी का सरोकार नहीं। 
समान्य जनता का आज भी कोई पैरोकार नहीं। 
 माँ निर्विकार भाव से एक टुकडा रोटी लाई। 
रोती हुई बच्ची के मुँह में  सहजता से पकड़ाई। 
बच्ची अब चुप हो रोटी चुभला रही है। 
इधर कुछ पार्टियाँ नया जुमला ला रही हैं। 
अब ईसे अपना अपना भाग्य कहूँ या दुखड़ा। 
मुझे तो अब भी दिख रहा है वही रोटी का टुकडा। 

नरसिंह हैरान जौनपुरी मुंबई

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4 Comments

Varsha_Upadhyay

30-May-2023 11:33 PM

बहुत खूब

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Abhinav ji

30-May-2023 08:47 AM

Very nice

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कमाल की रचना

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